विविध धर्म गुरु >> प्रेम वाणी मीरा प्रेम वाणी मीराअली सरदार जाफरी
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मीराबाई के एक सौ बावन पदों का संकलन.....
Prem Vani Meera
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सारे विश्व की कवियत्रियों में दो प्रतिभाएँ उस स्थान पर हैं जहाँ कोई कवियत्री नहीं पहुँच सकी है। इनमें से एक कावियत्री ईसा से 700 वर्ष पूर्व यूनान की सेफो़ है और दूसरी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दुस्तान की मीरा। दोनों ने प्रेम-काव्य का सृजन किया है, दोनों में भावों की तीव्रता है। दोनों की रचनाओं में एक टीस, एक पीड़ा और एक वेदना है। लेकिन मीरा इस दृष्टि से सेफो़ से श्रेष्ठ हैं
कि सेफो़ का प्रेम हाड़-मांस के जिस्म और उसके विदित सौन्दर्य से है, जबकि मीरा के प्रेम में एक मानवीय श्रद्धा और पवित्रता है। उनकी रचनाओं में शरीर और शारीरिकता केवल लक्षण तथा बिम्ब की हैसियत रखते हैं जिनकी सहायता से वह अपने भाव उन दिलों तक पहुँचाती हैं जो कृष्ण के अदृश्य व्यक्तित्व के सौन्दर्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते।
मीरा का काव्य किसी कोयल की कूक, किसी बुलबुल का गीत, किसी सुरीले साज की ध्वनि है जो पाठक के दिल की गहराइयों में उतर जाता है। उनके गीत प्रभावपूर्ण क्यों हैं ? इसका मुख्य कारण यह है कि गीत का प्रेम-काव्य स्त्री की ओर से पुरुष के लिए है और मीरा स्वयं स्त्री हैं। उनके गीतों में उनके शब्द, उनका लहजा और उनका दिल ये सब स्त्री-भाव की स्वाभाविक अभिव्यक्ति बन गये हैं।
‘कबीर बानी’ के बाद प्रख्यात उर्दू शायर अली सरदार जाफ़री के सम्पादन में मीरा के पदों का यह संकलन निश्चय ही सह्रदय पाठकों को पसन्द आयेगा।
कि सेफो़ का प्रेम हाड़-मांस के जिस्म और उसके विदित सौन्दर्य से है, जबकि मीरा के प्रेम में एक मानवीय श्रद्धा और पवित्रता है। उनकी रचनाओं में शरीर और शारीरिकता केवल लक्षण तथा बिम्ब की हैसियत रखते हैं जिनकी सहायता से वह अपने भाव उन दिलों तक पहुँचाती हैं जो कृष्ण के अदृश्य व्यक्तित्व के सौन्दर्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते।
मीरा का काव्य किसी कोयल की कूक, किसी बुलबुल का गीत, किसी सुरीले साज की ध्वनि है जो पाठक के दिल की गहराइयों में उतर जाता है। उनके गीत प्रभावपूर्ण क्यों हैं ? इसका मुख्य कारण यह है कि गीत का प्रेम-काव्य स्त्री की ओर से पुरुष के लिए है और मीरा स्वयं स्त्री हैं। उनके गीतों में उनके शब्द, उनका लहजा और उनका दिल ये सब स्त्री-भाव की स्वाभाविक अभिव्यक्ति बन गये हैं।
‘कबीर बानी’ के बाद प्रख्यात उर्दू शायर अली सरदार जाफ़री के सम्पादन में मीरा के पदों का यह संकलन निश्चय ही सह्रदय पाठकों को पसन्द आयेगा।
भूमिका
यह तो नहीं कहा जा सकता कि मीरा हिन्दुस्तानी कवियों में सर्वश्रेष्ठ स्थान रखती हैं लेकिन इस दृष्टिकोण के सत्य होने में किंचितमात्र भी सन्देह की आशंका नहीं कि मीरा से बड़ी कवयित्री हिन्दुस्तान की धरती आज तक नहीं पैदा कर सकी। किसी भी प्राचीन या आधुनिक हिन्दुस्तानी भाषा में ऐसी कोई कवयित्री नजर नहीं आती जिसे हम मीरा के मुकाबले में ला सके। मीरा के भावनालीन प्रभावपूर्ण गीत आज लगभग साढ़े तीन सौ साल बीतने के पश्चात् भी करोड़ों इनसानों के दिल की आवाज़ बने हुए हैं।
बात को थोड़ा सा और विसतार देकर यूँ भी कहा जा सकता है कि सारे विश्व की कवयित्रियों में दो प्रतिभाएँ उस स्थान पर हैं जहाँ कोई कवयित्री नहीं पहुँच सकी है। इनमें से एक कवियित्री ईसा से 700 वर्ष पूर्व यूनान की सेफो़ है और दूसरी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दुस्तान की मीरा। दोनों ने प्रेम काव्य का सृजन किया है, दोनों में भावों की तीव्रता है।
दोनों की रचनाओं में एक टीस, एक पीड़ा और एक वेदना है। लेकिन मीरा इस दृष्टि से सेफो़ से श्रेष्ठ हैं कि सेफो़ का प्रेम हाड़ मांस के जिस्म और उसके विदित सौन्दर्य से है, जबकि मीरा के प्रेम में एक मानवीय श्रद्धा और पवित्रता है। उनकी रचनाओं में शरीर और शारीरिकता केवल लक्षण तथा बिम्ब की हैसियत रखते हैं जिनकी सहायता से वह अपने उन दिलों तक पहुँचाती हैं जो कृष्ण के अदृश्य व्यक्तित्व के सौन्दर्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते।
मीरा के काव्य और उनके आध्यात्मिक विचारों का महत्त्वपूर्ण आधार भक्ति आन्दोलन है जिसको संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है।
मनुष्य ज्ञान के मार्ग पर चलते-चलते अन्त में उस स्थान पर आ जाता है जहाँ ज्ञान स्मृति की एक जड़ पूँजी बनकर रह जाते हैं, इस शैथिल्य अवस्था से घबराकर बुद्धि दिल की ओर आकृष्ट होती है और उन आवेगों का आनन्द लेना चाहती है जो जीवन के अमूल्य उपहार हैं। हिन्दुस्तानी बुद्धिधारा का भी यही इतिहास है।
हमारे देश में जब से इतिहास लेखन का सूर्योदय हुआ है और घटनाएँ देश काल स्थितियों के साथ व्यक्त होने लगी हैं उसी समय से सांख्य जैन और बौद्धमत के विशाल दर्शनशास्त्र धर्म के रूप में हमारे सामने हैं जिनमें बुद्धि की छान-फटक ने ईश्वर-विश्वास की भी जगह नहीं छोड़ी। जीव ज्ञान और प्रेम की इस तेज धूप से रस का प्यासा होकर दिल की ओर भागा और ईश्वर को स्वयंभू प्रमाणित करके उसकी पूजा का आनन्द लेना चाहा, यहीं से भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ होता है। जिसके दो रूप हैं-(1) नरनारायण मत (2) सात्वत मत।
नरनारायण मत में शौर्य और कर्म पर जोर दिया गया है और इस मत का प्रतिनिधि ग्रन्थ महाभारत (गीता सहित) है। अथवा इस भक्ति के प्रतिनिधि अर्जुन हैं। नरनारायण मत का केन्द्र मथुरा और उसके निकटवर्ती क्षेत्र थे। सात्वत मत प्रेम मत है और उसका प्रतिनिधि ग्रन्थ श्रीमद्भागवत है। इस मत का केन्द्र चित्तौड़ के करीब ‘माध्यमिका’ नगरी में था जो अब सिर्फ़ नगरी कहलाता है।
श्रीमद्भागवत गीता के लिए एक बड़ी रोचक कहानी विख्यात है जिससे भक्ति की वास्तविकता समझ में आती हैं। व्यास सारे महान हिन्दू ग्रन्थों के लेखक हैं। लेकिन इन असंख्य अमूल्य ग्रन्थों की रचना के बाद भी उनका मन तोष से वंचित था। एक दिन देवऋषि नारद से उन्होंने अपने असन्तोष की शिकायत की। नारद ने कहा कि अभी तक तुमने ज्ञान ग्रन्थ लिखे हैं, अब प्रेम ग्रन्थ लिखो, मन को शान्ति मिल जाएगी। इसके बाद व्यास ने अपने महान ग्रन्थ श्रीमद्भागवत का सृजन किया।
भक्ति किसी भी देवी या देवता की हो सकती है। लेकिन भक्ति आन्दोलन का अर्थ केवल वैष्णव धर्म है। यह माना जाता है कि संसार में जब-जब पाप और अत्याचार बढ़ता है तो स्वयं विष्णु भौतिक शरीर में अवतार लेकर सुधार के लिए आते हैं। इस तरह नौ बार धरती पर विष्णु का अवतरण हो चुका है। लेकिन वैष्णव मत का सम्बन्ध केवल राम और कृष्ण के अवतारीय अस्तित्व से है और उन्हीं से अतिरिक्त या अतिरेक प्रेम इस धर्म का मूल उद्देश्य है। इस भक्ति में पाँच भाव हैं।
(1) शान्तभाव,
(2) दासभाव,
(3) सखाभाव,
(4) वात्सल्यभाव,
(5) प्रेमभाव
(1) शान्तभाव वह है जो ऋषियों और बनवासी भक्तों में होता है। और जिसकी सहायता से वह राम और कृष्ण को कण-कण में उपस्थित पाकर उनकी भक्ति करते हैं।
(2) दासभाव वह है जब भक्ति एक दास की तरह राम या कृष्ण की भक्ति करता है। इसका अति उत्तम उदाहरण भक्त हनुमान हैं।
(3) सखाभाव वह है जब भक्त एक मित्र के रूप में भक्ति करता है। इसका उदाहरण वह ग्वाले हैं जो कृष्ण के साथ खेलते थे।
(4) वात्सल्यभाव वह है जब बाल राम या बाल कृष्ण की भक्ति की जाए। यह एक बड़ा सूक्ष्म भाव है जिसके अनुसार दशरथ, कौशल्या बल्कि स्वयं शिव बाल राम के भक्त हैं। और नन्द यशोदा तथा वल्लभाचार्य बाल कृष्ण के भक्त हैं।
(5) प्रेमभाव सबसे महत्त्वपूर्ण भाव है, इसमें ऋषि का शान्तभाव हनुमान का दासभाव, ग्वालों का सखाभाव और यशोदा का वात्सल्य भाव और बाललीलाएँ सब मौजूद हैं, साथ ही प्रेमीभक्त की आत्मा-परमात्मा में समाहित होकर उसी की हो जाती हैं।
वैष्णवमत की एक मुख्य विशेषता यह भी है कि इसकी भक्ति में श्रृंगार रस भरा हुआ है शरीर और आत्मा को कष्ट पहुँचाने वाली तपस्याएँ (तामसिक तपस्या) इस धर्म में वर्जित हैं। एक वैष्णव सन्त का रास्ता आनन्द और हर्षोन्माद का है जिस पर चलकर वह मोक्ष पद तक पहुँचता है।
श्रीमद्भागवत् के बाद वैष्णव विचारधाराएँ समय के अँधेरे में खोई रहीं, छठी शताब्दी में वैष्णव मत की दो पुस्तकों का पता चलता है, हरीवंश (कृष्ण वंशावली) और विष्णु पुराण अर्थात् वैष्णव का कृष्ण के रूप में अवतार ग्रहण करने की घटना। इन पुस्तकों से यह अनुमान होता है कि लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले भी वैष्णव मत का अस्तित्व था।
नौवीं शताब्दी में अब से बारह सौ साल पहले एक और वैष्णव ग्रन्थ भागवत पुराण मिलता है। जिसमें कृष्ण के अवतार लेने की घटना का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इस ग्रन्थ में कृष्ण का प्रेम एक ग्वालन से बताया गया है। लेकिन राधा का नाम नहीं लिया गया है। भागवत पुराण में कृष्ण का मथुरा में पैदा होना, गोकुल में ग्वालों के साथ पालन-पोषण होना,
ग्वालन से उनका प्रेम फिर इस ग्वालन को छोड़कर मथुरा जाना, वहाँ से द्वारका पहुँचना और राजा होना आदि का विस्तार से उल्लेख हुआ है। इस पुस्तक में कृष्ण के दो चरित्र हैं-एक ग्वाले कृष्ण का और दूसरा द्वारका के राजा कृष्ण का पहला रूप वैष्णव प्रेम का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा पात्र वैष्णव शक्ति तथा बुद्ध का प्रतिबिम्ब है।
ग्वाले कृष्ण का चरित्र ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में अधिक लोकप्रिय हुआ और उनकी प्रेमिका ग्वालन राधा का नाम भी लिया जाने लगा। राधा और कृष्ण के मिलाप को आत्मा और ईश्वर का सम्मिलन बताया गया है।
राधा और कृष्ण की श्रृंगारित और आध्यात्मिक कथा के एक भाग को, सबसे पहले बारहवीं शताब्दी के अन्त में संस्कृत कवि जयदेव ने ‘गीत गोविन्द’ के नाम से श्रेष्ठ साहित्यिक रूप प्रदान किया, इस रूपक- काव्य में संस्कृत नाटक के नायक और नायिका को कृष्ण और राधा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत नाटक के प्रमुख पात्र नायक का होता है। इसलिए जयदेव ने यह कविता कृष्ण को कोण बनाकर लिखी है। गीत गोविन्द ने राधा और कृष्ण के श्रृंगारिक काव्य के लिए नई राहें तैयार कर दीं।
जयदेव से प्रभावित होकर मैथिली के महान कवि विद्यापति (1380 ई. से 1448 ई. तक) ने राधा और कृष्ण के गीत लिखे, जिनमें कवि के श्रृंगारिक भाव ने राधा को सुन्दरतम रूप में पेश किया है।
भक्ति आन्दोलन को यथाक्रम दक्षिण में रामानुज ने आरम्भ किया जिसको उनके शिष्य रामानन्द काशी में लाए।
रामानन्द राम भक्त थे। लेकिन उनमें या उनके सम्प्रदाय में राम और कृष्ण का विभाजन न था, वह उन दोनों को एक ही समझते थे, क्योंकि ये दोनों विष्णु के अवतार हैं। रामानन्द के मानने वाले यूँ तो बहुत हैं लेकिन उनके शिष्यों में कबीर और रैदास को विशेष महत्त्व प्राप्त है। कबीर एक मुसलमान जुलाहे थे और रैदास चमार थे। यही रैदास मीरा के गुरु हैं, जैसा स्वयं मीरा ने कहा है।
बात को थोड़ा सा और विसतार देकर यूँ भी कहा जा सकता है कि सारे विश्व की कवयित्रियों में दो प्रतिभाएँ उस स्थान पर हैं जहाँ कोई कवयित्री नहीं पहुँच सकी है। इनमें से एक कवियित्री ईसा से 700 वर्ष पूर्व यूनान की सेफो़ है और दूसरी सोलहवीं शताब्दी में हिन्दुस्तान की मीरा। दोनों ने प्रेम काव्य का सृजन किया है, दोनों में भावों की तीव्रता है।
दोनों की रचनाओं में एक टीस, एक पीड़ा और एक वेदना है। लेकिन मीरा इस दृष्टि से सेफो़ से श्रेष्ठ हैं कि सेफो़ का प्रेम हाड़ मांस के जिस्म और उसके विदित सौन्दर्य से है, जबकि मीरा के प्रेम में एक मानवीय श्रद्धा और पवित्रता है। उनकी रचनाओं में शरीर और शारीरिकता केवल लक्षण तथा बिम्ब की हैसियत रखते हैं जिनकी सहायता से वह अपने उन दिलों तक पहुँचाती हैं जो कृष्ण के अदृश्य व्यक्तित्व के सौन्दर्य का पूरी तरह अनुभव नहीं कर सकते।
मीरा के काव्य और उनके आध्यात्मिक विचारों का महत्त्वपूर्ण आधार भक्ति आन्दोलन है जिसको संक्षेप में समझ लेना आवश्यक है।
मनुष्य ज्ञान के मार्ग पर चलते-चलते अन्त में उस स्थान पर आ जाता है जहाँ ज्ञान स्मृति की एक जड़ पूँजी बनकर रह जाते हैं, इस शैथिल्य अवस्था से घबराकर बुद्धि दिल की ओर आकृष्ट होती है और उन आवेगों का आनन्द लेना चाहती है जो जीवन के अमूल्य उपहार हैं। हिन्दुस्तानी बुद्धिधारा का भी यही इतिहास है।
हमारे देश में जब से इतिहास लेखन का सूर्योदय हुआ है और घटनाएँ देश काल स्थितियों के साथ व्यक्त होने लगी हैं उसी समय से सांख्य जैन और बौद्धमत के विशाल दर्शनशास्त्र धर्म के रूप में हमारे सामने हैं जिनमें बुद्धि की छान-फटक ने ईश्वर-विश्वास की भी जगह नहीं छोड़ी। जीव ज्ञान और प्रेम की इस तेज धूप से रस का प्यासा होकर दिल की ओर भागा और ईश्वर को स्वयंभू प्रमाणित करके उसकी पूजा का आनन्द लेना चाहा, यहीं से भक्ति आन्दोलन का प्रारम्भ होता है। जिसके दो रूप हैं-(1) नरनारायण मत (2) सात्वत मत।
नरनारायण मत में शौर्य और कर्म पर जोर दिया गया है और इस मत का प्रतिनिधि ग्रन्थ महाभारत (गीता सहित) है। अथवा इस भक्ति के प्रतिनिधि अर्जुन हैं। नरनारायण मत का केन्द्र मथुरा और उसके निकटवर्ती क्षेत्र थे। सात्वत मत प्रेम मत है और उसका प्रतिनिधि ग्रन्थ श्रीमद्भागवत है। इस मत का केन्द्र चित्तौड़ के करीब ‘माध्यमिका’ नगरी में था जो अब सिर्फ़ नगरी कहलाता है।
श्रीमद्भागवत गीता के लिए एक बड़ी रोचक कहानी विख्यात है जिससे भक्ति की वास्तविकता समझ में आती हैं। व्यास सारे महान हिन्दू ग्रन्थों के लेखक हैं। लेकिन इन असंख्य अमूल्य ग्रन्थों की रचना के बाद भी उनका मन तोष से वंचित था। एक दिन देवऋषि नारद से उन्होंने अपने असन्तोष की शिकायत की। नारद ने कहा कि अभी तक तुमने ज्ञान ग्रन्थ लिखे हैं, अब प्रेम ग्रन्थ लिखो, मन को शान्ति मिल जाएगी। इसके बाद व्यास ने अपने महान ग्रन्थ श्रीमद्भागवत का सृजन किया।
भक्ति किसी भी देवी या देवता की हो सकती है। लेकिन भक्ति आन्दोलन का अर्थ केवल वैष्णव धर्म है। यह माना जाता है कि संसार में जब-जब पाप और अत्याचार बढ़ता है तो स्वयं विष्णु भौतिक शरीर में अवतार लेकर सुधार के लिए आते हैं। इस तरह नौ बार धरती पर विष्णु का अवतरण हो चुका है। लेकिन वैष्णव मत का सम्बन्ध केवल राम और कृष्ण के अवतारीय अस्तित्व से है और उन्हीं से अतिरिक्त या अतिरेक प्रेम इस धर्म का मूल उद्देश्य है। इस भक्ति में पाँच भाव हैं।
(1) शान्तभाव,
(2) दासभाव,
(3) सखाभाव,
(4) वात्सल्यभाव,
(5) प्रेमभाव
(1) शान्तभाव वह है जो ऋषियों और बनवासी भक्तों में होता है। और जिसकी सहायता से वह राम और कृष्ण को कण-कण में उपस्थित पाकर उनकी भक्ति करते हैं।
(2) दासभाव वह है जब भक्ति एक दास की तरह राम या कृष्ण की भक्ति करता है। इसका अति उत्तम उदाहरण भक्त हनुमान हैं।
(3) सखाभाव वह है जब भक्त एक मित्र के रूप में भक्ति करता है। इसका उदाहरण वह ग्वाले हैं जो कृष्ण के साथ खेलते थे।
(4) वात्सल्यभाव वह है जब बाल राम या बाल कृष्ण की भक्ति की जाए। यह एक बड़ा सूक्ष्म भाव है जिसके अनुसार दशरथ, कौशल्या बल्कि स्वयं शिव बाल राम के भक्त हैं। और नन्द यशोदा तथा वल्लभाचार्य बाल कृष्ण के भक्त हैं।
(5) प्रेमभाव सबसे महत्त्वपूर्ण भाव है, इसमें ऋषि का शान्तभाव हनुमान का दासभाव, ग्वालों का सखाभाव और यशोदा का वात्सल्य भाव और बाललीलाएँ सब मौजूद हैं, साथ ही प्रेमीभक्त की आत्मा-परमात्मा में समाहित होकर उसी की हो जाती हैं।
वैष्णवमत की एक मुख्य विशेषता यह भी है कि इसकी भक्ति में श्रृंगार रस भरा हुआ है शरीर और आत्मा को कष्ट पहुँचाने वाली तपस्याएँ (तामसिक तपस्या) इस धर्म में वर्जित हैं। एक वैष्णव सन्त का रास्ता आनन्द और हर्षोन्माद का है जिस पर चलकर वह मोक्ष पद तक पहुँचता है।
श्रीमद्भागवत् के बाद वैष्णव विचारधाराएँ समय के अँधेरे में खोई रहीं, छठी शताब्दी में वैष्णव मत की दो पुस्तकों का पता चलता है, हरीवंश (कृष्ण वंशावली) और विष्णु पुराण अर्थात् वैष्णव का कृष्ण के रूप में अवतार ग्रहण करने की घटना। इन पुस्तकों से यह अनुमान होता है कि लगभग डेढ़ हजार वर्ष पहले भी वैष्णव मत का अस्तित्व था।
नौवीं शताब्दी में अब से बारह सौ साल पहले एक और वैष्णव ग्रन्थ भागवत पुराण मिलता है। जिसमें कृष्ण के अवतार लेने की घटना का विस्तार से उल्लेख किया गया है। इस ग्रन्थ में कृष्ण का प्रेम एक ग्वालन से बताया गया है। लेकिन राधा का नाम नहीं लिया गया है। भागवत पुराण में कृष्ण का मथुरा में पैदा होना, गोकुल में ग्वालों के साथ पालन-पोषण होना,
ग्वालन से उनका प्रेम फिर इस ग्वालन को छोड़कर मथुरा जाना, वहाँ से द्वारका पहुँचना और राजा होना आदि का विस्तार से उल्लेख हुआ है। इस पुस्तक में कृष्ण के दो चरित्र हैं-एक ग्वाले कृष्ण का और दूसरा द्वारका के राजा कृष्ण का पहला रूप वैष्णव प्रेम का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा पात्र वैष्णव शक्ति तथा बुद्ध का प्रतिबिम्ब है।
ग्वाले कृष्ण का चरित्र ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में अधिक लोकप्रिय हुआ और उनकी प्रेमिका ग्वालन राधा का नाम भी लिया जाने लगा। राधा और कृष्ण के मिलाप को आत्मा और ईश्वर का सम्मिलन बताया गया है।
राधा और कृष्ण की श्रृंगारित और आध्यात्मिक कथा के एक भाग को, सबसे पहले बारहवीं शताब्दी के अन्त में संस्कृत कवि जयदेव ने ‘गीत गोविन्द’ के नाम से श्रेष्ठ साहित्यिक रूप प्रदान किया, इस रूपक- काव्य में संस्कृत नाटक के नायक और नायिका को कृष्ण और राधा के रूप में प्रस्तुत किया गया है। संस्कृत नाटक के प्रमुख पात्र नायक का होता है। इसलिए जयदेव ने यह कविता कृष्ण को कोण बनाकर लिखी है। गीत गोविन्द ने राधा और कृष्ण के श्रृंगारिक काव्य के लिए नई राहें तैयार कर दीं।
जयदेव से प्रभावित होकर मैथिली के महान कवि विद्यापति (1380 ई. से 1448 ई. तक) ने राधा और कृष्ण के गीत लिखे, जिनमें कवि के श्रृंगारिक भाव ने राधा को सुन्दरतम रूप में पेश किया है।
भक्ति आन्दोलन को यथाक्रम दक्षिण में रामानुज ने आरम्भ किया जिसको उनके शिष्य रामानन्द काशी में लाए।
रामानन्द राम भक्त थे। लेकिन उनमें या उनके सम्प्रदाय में राम और कृष्ण का विभाजन न था, वह उन दोनों को एक ही समझते थे, क्योंकि ये दोनों विष्णु के अवतार हैं। रामानन्द के मानने वाले यूँ तो बहुत हैं लेकिन उनके शिष्यों में कबीर और रैदास को विशेष महत्त्व प्राप्त है। कबीर एक मुसलमान जुलाहे थे और रैदास चमार थे। यही रैदास मीरा के गुरु हैं, जैसा स्वयं मीरा ने कहा है।
रैदास सन्त मिले मोहे सतगुरु देहीं सुरत सहदानी।
कबीर का काव्य एक रंगारंग गुलदस्ता है, जिसमें वैष्णव मत का श्रृंगार नवनीकत्ता क्रान्तिकारी की ललकार, तसौवुफ़ का वाहिदुलवजूद या ‘निर्गुण ब्रह्म’ और देशकाल में अवतार लेनेवाला ‘सगुण परमेश्वर’ ग़रज सब ही कुछ मौजूद है, अपनी अन्तिम अवस्था में वह एक नए धर्म कबीर पन्थ के संस्थापक बने।
कबीर के अन्तिम समय में पंजाब में गुरुनानक का उदय हुआ। इनके अतिरिक्त उस समय तक सूफी समुदाय हिन्दुस्तान में उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक फैल चुका था। खुद मीरा के राजस्थान में कई सौ साल से ख्वाजा मुईनुदुद्दीन चिश्ती की दरगाह मौजूद थी। इन सब सन्त तपस्वियों का प्रेम सन्देश भी भक्ति आन्दोलन का अनुमोदक बना।
भक्ति आन्दोलन और वैष्णवमत से महान गुरु चैतन्य महाप्रभु (1456 से 1534) तब कबीर ही के युग में बंगाल में पैदा हुए
और अपने उन्मत व्यक्तित्व के असर से सारे बंगाल को कृष्ण-प्रेम में लीन कर दिया, अपनी अन्तः प्रेरणा से चैतन्य ही ने वृन्दावन का पता लगाया, जहाँ वैष्णव मतानुसार जीवात्मा और परमात्मा का अनन्तकाल तक मिलन होता रहेगा। यही वृन्दावन आज भी सारे वैष्णवों का केन्द्रीय पूज्य स्थान है। स्वयं चैतन्य ने इसी स्थान को अपना प्रचार केन्द्र बनाया, और उनके बाद उनके शिष्य भी यहीं निवास करते रहे।
चैतन्य ही की तरह वैष्णव सम्प्रदाय के दूसरे महान व्यक्तित्व वल्लभाचार्य (1478 से 1530 तक) थे जो वैष्णवों के प्रतिष्ठित पंडित और गुरु हैं। महाकवि सूरदास वल्लभाचार्य ही के शिष्य थे। आज भी वैष्णवों में वल्लभ सम्प्रदाय सम्भवतः सबसे बड़ा गिरोह है। वल्लभाचार्य का इष्ट देवता कृष्ण या वह मनमोहित बालरूप था जो यशोदा की गोद में रहता था। वल्लभ सम्प्रदाय वाले कृष्ण के इस रूप को ‘लाल’ के प्यारे नाम से पुकारते हैं।
वल्लभाचार्य ने भक्ति और प्रेम में एक विशिष्टता पैदा की। यह विशिष्टता केवल इसी हद तक नहीं गई कि राम और कृष्ण की भक्ति अलग हो गई। बल्कि बात यहाँ तक पहुँची कि अगर बाल कृष्ण तुम्हारे इष्ट हैं तो मन्दिर में बाल कृष्ण या किसी दूसरे वैष्णव के घर के बाल कृष्ण तुम्हारे लिए केवल आदरणीय हैं, लेकिन तुम्हारा वास्तविक इष्टबाल कृष्ण की वह मूर्ति है जो गुरु ने तुमको दी है और जिसे अपने घर में स्थापित करके तुम उसकी पूजा करते हो। अपने दुःख-सुख तुम उसी मूर्ति से कह सकते हो, किसी और मूर्ति के सामने प्रार्थना करना या कुछ माँगना वर्जित है।
तुलसीदास के इष्ट देवता बाल राम या राजा राम न थे। वह चित्रकूट के रमते राम को अपना इष्ट मानते थे, जिनके व्यक्तित्व की सम्पूर्णता धनुषबाण के बिन नहीं होती। एक दिन वह कृष्ण मन्दिर में गए, कृष्ण की मूर्ति को देखकर उन्होंने सिर नहीं झुकाया और यह दोहा शब्दबद्ध कियाः
कबीर के अन्तिम समय में पंजाब में गुरुनानक का उदय हुआ। इनके अतिरिक्त उस समय तक सूफी समुदाय हिन्दुस्तान में उत्तर से लेकर दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक फैल चुका था। खुद मीरा के राजस्थान में कई सौ साल से ख्वाजा मुईनुदुद्दीन चिश्ती की दरगाह मौजूद थी। इन सब सन्त तपस्वियों का प्रेम सन्देश भी भक्ति आन्दोलन का अनुमोदक बना।
भक्ति आन्दोलन और वैष्णवमत से महान गुरु चैतन्य महाप्रभु (1456 से 1534) तब कबीर ही के युग में बंगाल में पैदा हुए
और अपने उन्मत व्यक्तित्व के असर से सारे बंगाल को कृष्ण-प्रेम में लीन कर दिया, अपनी अन्तः प्रेरणा से चैतन्य ही ने वृन्दावन का पता लगाया, जहाँ वैष्णव मतानुसार जीवात्मा और परमात्मा का अनन्तकाल तक मिलन होता रहेगा। यही वृन्दावन आज भी सारे वैष्णवों का केन्द्रीय पूज्य स्थान है। स्वयं चैतन्य ने इसी स्थान को अपना प्रचार केन्द्र बनाया, और उनके बाद उनके शिष्य भी यहीं निवास करते रहे।
चैतन्य ही की तरह वैष्णव सम्प्रदाय के दूसरे महान व्यक्तित्व वल्लभाचार्य (1478 से 1530 तक) थे जो वैष्णवों के प्रतिष्ठित पंडित और गुरु हैं। महाकवि सूरदास वल्लभाचार्य ही के शिष्य थे। आज भी वैष्णवों में वल्लभ सम्प्रदाय सम्भवतः सबसे बड़ा गिरोह है। वल्लभाचार्य का इष्ट देवता कृष्ण या वह मनमोहित बालरूप था जो यशोदा की गोद में रहता था। वल्लभ सम्प्रदाय वाले कृष्ण के इस रूप को ‘लाल’ के प्यारे नाम से पुकारते हैं।
वल्लभाचार्य ने भक्ति और प्रेम में एक विशिष्टता पैदा की। यह विशिष्टता केवल इसी हद तक नहीं गई कि राम और कृष्ण की भक्ति अलग हो गई। बल्कि बात यहाँ तक पहुँची कि अगर बाल कृष्ण तुम्हारे इष्ट हैं तो मन्दिर में बाल कृष्ण या किसी दूसरे वैष्णव के घर के बाल कृष्ण तुम्हारे लिए केवल आदरणीय हैं, लेकिन तुम्हारा वास्तविक इष्टबाल कृष्ण की वह मूर्ति है जो गुरु ने तुमको दी है और जिसे अपने घर में स्थापित करके तुम उसकी पूजा करते हो। अपने दुःख-सुख तुम उसी मूर्ति से कह सकते हो, किसी और मूर्ति के सामने प्रार्थना करना या कुछ माँगना वर्जित है।
तुलसीदास के इष्ट देवता बाल राम या राजा राम न थे। वह चित्रकूट के रमते राम को अपना इष्ट मानते थे, जिनके व्यक्तित्व की सम्पूर्णता धनुषबाण के बिन नहीं होती। एक दिन वह कृष्ण मन्दिर में गए, कृष्ण की मूर्ति को देखकर उन्होंने सिर नहीं झुकाया और यह दोहा शब्दबद्ध कियाः
क्या छब बरनो आजु की भले बने हौ नाथ।
तुलसी मस्तक कब निवै धनुष बाण लेव हाथ।।
तुलसी मस्तक कब निवै धनुष बाण लेव हाथ।।
यानी ऐ कृष्ण निश्चय तुम भी विष्णु ही के अवतार हो लेकिन मैं तो सिर तब ही झुकाऊँगा जब धनुषबाण हाथ में लेकर तुम चित्रकूट के रमते राम बन जाओ।
उस काल में यूँ तो अनगिनत सम्प्रदाय, प्रथा, धर्ममार्ग प्रचलित थे लेकिन तीन मत अधिक विस्तृत और हर तरफ लोक प्रसिद्ध थे। शैव, शाक्त और वैष्णव। वैष्णव शिव के भक्त थे और उनमें ज्यादातर ब्राह्मण थे। ये भारत का प्राचीन मत है और उसके मूल सिद्धान्त बड़े विचारोत्तेजक हैं। शाक्त, शक्ति अर्थात् देवी के पुजारी हैं, देवी के सामने बलि या कुर्बानी के कारण इससे प्राचीन कबायली अवधाराणाओं की झलक नज़र आती है। लेकिन इसके सिद्धान्तों में काफी सन्तुलन है। शाक्त ज्यादातर क्षत्रिय या फिर नीची जाति के लोग होते हैं। यह भी हिन्दुस्तान का प्राचीन मत है। शैव और शाक्त दोनों मत सम्भवतः अनार्य हैं।
उस समय का सबसे सुसभ्यमत वैष्णव मत था जिसने हिन्दुस्तानी आत्मा के साथ, हिन्दुस्तानी काव्य साहित्य और ललित कलाओं को भी एक नई जिन्दगी दे दी है। मीरा इसी मत की एक सच्ची अनुयायी हैं।
हिन्दुस्तानी विचारधारा की यह विशेषता है कि वह जिन लोगों को महान समझता है उनके चारों ओर गूढ़विश्वासों श्रद्धाओं और परम्पराओं के ऐसे ताने-बाने बुन देता है कि शोधकर्ताओं के लिए उस व्यक्तित्व की पहचान बहुत कठिन हो जाती है। मीरा भी इसी अनुलित अत्याचार के शिकार हैं, उनके अनुयायी और चाहनेवाले आमलोग तो एक तरह खुद विशिष्टवर्ग ने उसके अस्तित्व को ऐसे दैवत्व धुँधलकों में पहुँचा दिया है कि सिर्फ़ साढ़े तीन सौ साल पहले की महत्त्वपूर्ण हस्ती को ऐतिहासिक वास्तविकताओं के प्रकाश में लाना मुश्किल हो गया है।
मीराबाई राजपूताना रियासत मीड़ता के राजा वीरमदेव के छोटे भाई रतन सिंह की इकलौती बेटी थी। मीड़ता का राजा राठोड़ परिवार में अपने शौर्य के लिए मशहूर था, इस प्रतिष्ठित परिवार में 1498 में मीरा का जन्म हुआ था।
मीरा की माता का 1503 में देहान्त हो चुका था। उनकी शिक्षा-दीक्षा उनके दादा दौंदामल के संरक्षण में, राजकुँवर जीतमल के साथ हुई। और उन्हें युग प्रमाणित विद्या, शौर्यशास्त्र तथा ललितशास्त्र की नियमित शिक्षा मिली।
मीरा असीम सौन्दर्य के साथ एक मोहब्बत भरा दिल लेकर पैदा हुई थीं।
अभी वह सिर्फ पाँच साल की थीं कि उन्हें एक बाबा (सम्भवतः) रैदास, ने गिरधर जी (कृष्ण) की मूर्ति दे दी। मासूम मीरा उस मूर्ति से इतनी प्रभावित हुईं कि वह अपने अस्तित्व को गिरधरजी के वजूद में समाहित करके अहिंसा की पुजारी बन गई। उन्होंने अपने परिवार की देवी काली की रक्तरंजित बलियों में कभी भाग नहीं लिया।
मीरा के पांडित्य, सौन्दर्य और सज्जनता की दूर-दूर तक चर्चा थी। 1516 में मीरा का विवाह सबसे शक्तिशाली राजपूत राजा चित्तौड़ के राणासाँगा के राजकुँवर भोजराज से हुआ इस तरह मीरा सात्वतमत के प्राचीन केन्द्र माध्यमिका नगरी के पास अपनी ससुराल चित्तौड़ में आ गईं। माध्यमिका नगरी अब भी ‘नगरी’ कहलाती है और वहाँ के कण-कण में आध्यात्मिक लोगों को श्रीमद्भागत की आत्मा जगमगाती नज़र आती है।
मीरा ऐसे विचार लिये हुए ससुराल आई जो किसी भी स्त्री के विवाहित जीवन को नष्ट कर देते। वह अपने पति की सेवा करने पर तैयार थीं, लेकिन साथ ही यह भी कहती थीं कि मेरा विवाह गिरधरजी के साथ हो चुका है। मनमुटाव बढ़ता गया, आख़िर यह खब़र राणासाँगा को पहुँची और वह सख़्त नाराज़ हुए, लेकिन उनकी माता रानी झाली ने जो रैदास की चेली थीं, बेटे को समझा- बुझाकर मीरा को बचा लिया।
इस अन्तर्द्वन्द्व का नतीजा यह हुआ कि मीरा के पति भोजराज ने दूसरी शादी कर ली, शायद चित्तौड़ ही में। रानी झाली के गुरु रैदास ने मीरा को दीक्षा दी। वह उस वक्त सौ वर्ष से ज्यादा के हो चुके होंगे। मीरा ने एक कृष्ण मन्दिर बनवा लिया था। न उन्हें सौत का डाह था, न पति से शिकायत। वह गिरधरजी का प्रेम अमृत पिए हुए हर वक्त उन्हीं की सेवा में लगी रहती थीं, वह मस्ती के जुनून में भजन करतीं और पाँव में घुँघरू बाँधकर नाचती थीं। जैसा वह स्वयं कहती हैं :
उस काल में यूँ तो अनगिनत सम्प्रदाय, प्रथा, धर्ममार्ग प्रचलित थे लेकिन तीन मत अधिक विस्तृत और हर तरफ लोक प्रसिद्ध थे। शैव, शाक्त और वैष्णव। वैष्णव शिव के भक्त थे और उनमें ज्यादातर ब्राह्मण थे। ये भारत का प्राचीन मत है और उसके मूल सिद्धान्त बड़े विचारोत्तेजक हैं। शाक्त, शक्ति अर्थात् देवी के पुजारी हैं, देवी के सामने बलि या कुर्बानी के कारण इससे प्राचीन कबायली अवधाराणाओं की झलक नज़र आती है। लेकिन इसके सिद्धान्तों में काफी सन्तुलन है। शाक्त ज्यादातर क्षत्रिय या फिर नीची जाति के लोग होते हैं। यह भी हिन्दुस्तान का प्राचीन मत है। शैव और शाक्त दोनों मत सम्भवतः अनार्य हैं।
उस समय का सबसे सुसभ्यमत वैष्णव मत था जिसने हिन्दुस्तानी आत्मा के साथ, हिन्दुस्तानी काव्य साहित्य और ललित कलाओं को भी एक नई जिन्दगी दे दी है। मीरा इसी मत की एक सच्ची अनुयायी हैं।
हिन्दुस्तानी विचारधारा की यह विशेषता है कि वह जिन लोगों को महान समझता है उनके चारों ओर गूढ़विश्वासों श्रद्धाओं और परम्पराओं के ऐसे ताने-बाने बुन देता है कि शोधकर्ताओं के लिए उस व्यक्तित्व की पहचान बहुत कठिन हो जाती है। मीरा भी इसी अनुलित अत्याचार के शिकार हैं, उनके अनुयायी और चाहनेवाले आमलोग तो एक तरह खुद विशिष्टवर्ग ने उसके अस्तित्व को ऐसे दैवत्व धुँधलकों में पहुँचा दिया है कि सिर्फ़ साढ़े तीन सौ साल पहले की महत्त्वपूर्ण हस्ती को ऐतिहासिक वास्तविकताओं के प्रकाश में लाना मुश्किल हो गया है।
मीराबाई राजपूताना रियासत मीड़ता के राजा वीरमदेव के छोटे भाई रतन सिंह की इकलौती बेटी थी। मीड़ता का राजा राठोड़ परिवार में अपने शौर्य के लिए मशहूर था, इस प्रतिष्ठित परिवार में 1498 में मीरा का जन्म हुआ था।
मीरा की माता का 1503 में देहान्त हो चुका था। उनकी शिक्षा-दीक्षा उनके दादा दौंदामल के संरक्षण में, राजकुँवर जीतमल के साथ हुई। और उन्हें युग प्रमाणित विद्या, शौर्यशास्त्र तथा ललितशास्त्र की नियमित शिक्षा मिली।
मीरा असीम सौन्दर्य के साथ एक मोहब्बत भरा दिल लेकर पैदा हुई थीं।
अभी वह सिर्फ पाँच साल की थीं कि उन्हें एक बाबा (सम्भवतः) रैदास, ने गिरधर जी (कृष्ण) की मूर्ति दे दी। मासूम मीरा उस मूर्ति से इतनी प्रभावित हुईं कि वह अपने अस्तित्व को गिरधरजी के वजूद में समाहित करके अहिंसा की पुजारी बन गई। उन्होंने अपने परिवार की देवी काली की रक्तरंजित बलियों में कभी भाग नहीं लिया।
मीरा के पांडित्य, सौन्दर्य और सज्जनता की दूर-दूर तक चर्चा थी। 1516 में मीरा का विवाह सबसे शक्तिशाली राजपूत राजा चित्तौड़ के राणासाँगा के राजकुँवर भोजराज से हुआ इस तरह मीरा सात्वतमत के प्राचीन केन्द्र माध्यमिका नगरी के पास अपनी ससुराल चित्तौड़ में आ गईं। माध्यमिका नगरी अब भी ‘नगरी’ कहलाती है और वहाँ के कण-कण में आध्यात्मिक लोगों को श्रीमद्भागत की आत्मा जगमगाती नज़र आती है।
मीरा ऐसे विचार लिये हुए ससुराल आई जो किसी भी स्त्री के विवाहित जीवन को नष्ट कर देते। वह अपने पति की सेवा करने पर तैयार थीं, लेकिन साथ ही यह भी कहती थीं कि मेरा विवाह गिरधरजी के साथ हो चुका है। मनमुटाव बढ़ता गया, आख़िर यह खब़र राणासाँगा को पहुँची और वह सख़्त नाराज़ हुए, लेकिन उनकी माता रानी झाली ने जो रैदास की चेली थीं, बेटे को समझा- बुझाकर मीरा को बचा लिया।
इस अन्तर्द्वन्द्व का नतीजा यह हुआ कि मीरा के पति भोजराज ने दूसरी शादी कर ली, शायद चित्तौड़ ही में। रानी झाली के गुरु रैदास ने मीरा को दीक्षा दी। वह उस वक्त सौ वर्ष से ज्यादा के हो चुके होंगे। मीरा ने एक कृष्ण मन्दिर बनवा लिया था। न उन्हें सौत का डाह था, न पति से शिकायत। वह गिरधरजी का प्रेम अमृत पिए हुए हर वक्त उन्हीं की सेवा में लगी रहती थीं, वह मस्ती के जुनून में भजन करतीं और पाँव में घुँघरू बाँधकर नाचती थीं। जैसा वह स्वयं कहती हैं :
सज सिंगार बाँध पग घुँघरू, लोक लाज तज नाची
मीरा जनता में तो प्रसिद्ध हुई और खुद उनके घर में झगड़े हद तक पहुँच गए। ससुरालवालों से उनकी टक्करें हुईं। पति ने उन्हें साँप से डँसवाने और जहर देने की कोशिशें कीं लेकिन मीरा अपने रास्ते पर डटी रहीं। इस संकलन में भजन 53-102-103 और 112 से 119 तक इन घटनाओं के वे दस्तावेज हैं जो खुद मीरा लिखकर हमारे लिए छोड़ गई हैं।
1521-23 ईं. में मीरा के पति भोजराज एक लड़ाई में जख्मी होकर मर गए और मीरा विधवा हो गईं। मेवाड़ में षडयन्त्र चल रहे थे। लेकिन राणासाँगा के लौह व्यक्तित्व के सामने किसी की न चलती थी। आखिर 30 जनवरी, 1528 को राणासाँगा को विष देकर मार दिया गया और उनकी जगह मीरा का सौतेला देवर रतन सिंह द्वितीय मेवाड़ का राणा हुआ। वह मीरा का दुश्मन था।
उसने मीरा को एक किले में कैद कर दिया और निगरानी के लिए दो औरतें चम्पा और चम्बेली को नियुक्त किया, लेकिन ये दोनों मीरा के जादुई व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी चेली बन गईं।
षड्यन्त्रकारियों ने रतन सिंह की हत्या कर दी और उसकी जगह राणा वंश के एक नपुंसक विक्रमाजीत को गद्दी पर बिठा दिया। विक्रमाजीत ने मीरा को मार डालना चाहा, लेकिन एक साध्वी की हत्या करने पर कोई तैयार नहीं हुआ। आखिर उसने मीरा को दरिया में डुबोने का हुक्म दिया। आदेश का पालन हुआ मीरा दरिया में गिरीं, उनके कपड़े पानी के ऊपर तैरते रहे और मीरा गायब हो गईं। हुआ यह कि उसके चाचा मीड़ता के राजा उसे बचाकर ले गए। यह घटना 1532 की थी, उसके सिर्फ चार साल बाद 1536 में विक्रमाजीत का कत्ल कर दिया गया।
मीरा अपने चाचा बीरमदेव के पास मीड़ता पहुँच गईं, लेकिन यहाँ भी उनकी उन्मादपूर्ण भक्ति में कोई कमी न हुई। वह हर आनेवाले साधु की सेवा करतीं थीं और बिना किसी झिझक हर वर्ग के आदमियों से मिलती थीं। वीरमदेव की नज़र में एक राजघराने की विधवा के लिए ये बातें अनुचित थीं। आखिर मीरा मीड़ता से यात्रा पर रवाना हो गईं। इस यात्रा का विवरण अज्ञात है। हम मीरा को वृन्दावन में उस वक्त देखते हैं जब चैतन्य के विद्वान उत्तराधिकारी जीवगोसाई से उनकी टक्कर हुई।
हिन्दू दर्शन में आराधक स्त्री और आराध्य मर्द है। हिन्दू पद्य साहित्य में आमतौर पर इसी नियम का पालन किया जाता है। इसी धारणा के अन्तर्गत वैष्णवों के यहाँ भी यह सिद्धान्त बनाया गया है कि शुद्ध प्रेम का स्नान सिर्फ स्त्री का हृदय हो सकता है, इसीलिए कृष्ण से समस्त मोहब्बत करने वाली गोपियाँ हैं। पुरुष केवल कृष्ण हैं।
मीरा जब वृन्दावन पहुँची तो चित्तौड़ की राज बहू के अतिरिक्त भक्त और कवयित्री की हैसियत से भी उनकी काफी़ ख्याति हो चुकी थी। उसके बावजूद जीवगोसाई ने स्त्री होने की वजह से मीरा से भेंट करना स्वीकार नहीं किया। इस पर मीरा ने उनको सन्देश भेजा कि मैं तो समझती थी कि वृन्दावन में पुरुष केवल कृष्ण हैं, गोपियाँ और स्त्री हैं, यह तो आज मालूम हुआ कि वृन्दावन में कृष्ण के अतिरिक्त भी पुरुष रहते हैं। जीवगोसाईं इस उसूली जवाब पर काफी़ शर्मिन्दा हुए और मीरा के पास पहुँच गए।
मीरा की भक्ति की कथाएँ और उसके रसीले भजन जनता की जबान पर चढ़ चुके थे, यहाँ तक कि गुरु नानक के ग्रन्थ में मीरा के भजन शामिल हो चुके थे।
वृन्दावन में मीरा कुछ दिन ठहरीं आखिर दुखी होकर वह कृष्ण ही की तरह द्वारका चली गईं, यहाँ पुराने कृष्ण मन्दिर के सिर्फ़ खंडहर पड़े हुए थे। मीरा की कोशिश से मन्दिर का फिर निर्माण हुआ और मीरा इस मन्दिर में अपने कृष्ण पर भक्ति के फूल निछावर करने लगीं।
1546 में राणा उदय सिंह ने ब्राह्मणों की एक मंडली द्वारका भेजी कि मीरा को मनाकर किसी तरह चित्तौड़ वापस लाओ। मीरा ने द्वारका छोड़ने से इनकार कर दिया। इस पर ब्राह्मणों ने उपवास शुरू कर दिया, आखिर मीरा इस मामले में गिरधरजी का आदेश लेने के लिए रात में मन्दिर के अन्दर चली गईं। सवेरे जब मन्दिर खोला गया तो मूर्ति के हाथ पर मीरा के वस्त्र थे। और मालूम होता था
कि गोपी का अवतार मीरा खुद मूर्ति में समा गई। चैतन्य महाप्रभु के लिए भी यही मशहूर है। ब्राह्मण निराश होकर वापस आए और मीरा एक अज्ञात बैरागन के भेस में दक्षिण भारत की तीर्थयात्रा पर निकल गईं। चार साल उनका कोई पता न चला।
1521-23 ईं. में मीरा के पति भोजराज एक लड़ाई में जख्मी होकर मर गए और मीरा विधवा हो गईं। मेवाड़ में षडयन्त्र चल रहे थे। लेकिन राणासाँगा के लौह व्यक्तित्व के सामने किसी की न चलती थी। आखिर 30 जनवरी, 1528 को राणासाँगा को विष देकर मार दिया गया और उनकी जगह मीरा का सौतेला देवर रतन सिंह द्वितीय मेवाड़ का राणा हुआ। वह मीरा का दुश्मन था।
उसने मीरा को एक किले में कैद कर दिया और निगरानी के लिए दो औरतें चम्पा और चम्बेली को नियुक्त किया, लेकिन ये दोनों मीरा के जादुई व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनकी चेली बन गईं।
षड्यन्त्रकारियों ने रतन सिंह की हत्या कर दी और उसकी जगह राणा वंश के एक नपुंसक विक्रमाजीत को गद्दी पर बिठा दिया। विक्रमाजीत ने मीरा को मार डालना चाहा, लेकिन एक साध्वी की हत्या करने पर कोई तैयार नहीं हुआ। आखिर उसने मीरा को दरिया में डुबोने का हुक्म दिया। आदेश का पालन हुआ मीरा दरिया में गिरीं, उनके कपड़े पानी के ऊपर तैरते रहे और मीरा गायब हो गईं। हुआ यह कि उसके चाचा मीड़ता के राजा उसे बचाकर ले गए। यह घटना 1532 की थी, उसके सिर्फ चार साल बाद 1536 में विक्रमाजीत का कत्ल कर दिया गया।
मीरा अपने चाचा बीरमदेव के पास मीड़ता पहुँच गईं, लेकिन यहाँ भी उनकी उन्मादपूर्ण भक्ति में कोई कमी न हुई। वह हर आनेवाले साधु की सेवा करतीं थीं और बिना किसी झिझक हर वर्ग के आदमियों से मिलती थीं। वीरमदेव की नज़र में एक राजघराने की विधवा के लिए ये बातें अनुचित थीं। आखिर मीरा मीड़ता से यात्रा पर रवाना हो गईं। इस यात्रा का विवरण अज्ञात है। हम मीरा को वृन्दावन में उस वक्त देखते हैं जब चैतन्य के विद्वान उत्तराधिकारी जीवगोसाई से उनकी टक्कर हुई।
हिन्दू दर्शन में आराधक स्त्री और आराध्य मर्द है। हिन्दू पद्य साहित्य में आमतौर पर इसी नियम का पालन किया जाता है। इसी धारणा के अन्तर्गत वैष्णवों के यहाँ भी यह सिद्धान्त बनाया गया है कि शुद्ध प्रेम का स्नान सिर्फ स्त्री का हृदय हो सकता है, इसीलिए कृष्ण से समस्त मोहब्बत करने वाली गोपियाँ हैं। पुरुष केवल कृष्ण हैं।
मीरा जब वृन्दावन पहुँची तो चित्तौड़ की राज बहू के अतिरिक्त भक्त और कवयित्री की हैसियत से भी उनकी काफी़ ख्याति हो चुकी थी। उसके बावजूद जीवगोसाई ने स्त्री होने की वजह से मीरा से भेंट करना स्वीकार नहीं किया। इस पर मीरा ने उनको सन्देश भेजा कि मैं तो समझती थी कि वृन्दावन में पुरुष केवल कृष्ण हैं, गोपियाँ और स्त्री हैं, यह तो आज मालूम हुआ कि वृन्दावन में कृष्ण के अतिरिक्त भी पुरुष रहते हैं। जीवगोसाईं इस उसूली जवाब पर काफी़ शर्मिन्दा हुए और मीरा के पास पहुँच गए।
मीरा की भक्ति की कथाएँ और उसके रसीले भजन जनता की जबान पर चढ़ चुके थे, यहाँ तक कि गुरु नानक के ग्रन्थ में मीरा के भजन शामिल हो चुके थे।
वृन्दावन में मीरा कुछ दिन ठहरीं आखिर दुखी होकर वह कृष्ण ही की तरह द्वारका चली गईं, यहाँ पुराने कृष्ण मन्दिर के सिर्फ़ खंडहर पड़े हुए थे। मीरा की कोशिश से मन्दिर का फिर निर्माण हुआ और मीरा इस मन्दिर में अपने कृष्ण पर भक्ति के फूल निछावर करने लगीं।
1546 में राणा उदय सिंह ने ब्राह्मणों की एक मंडली द्वारका भेजी कि मीरा को मनाकर किसी तरह चित्तौड़ वापस लाओ। मीरा ने द्वारका छोड़ने से इनकार कर दिया। इस पर ब्राह्मणों ने उपवास शुरू कर दिया, आखिर मीरा इस मामले में गिरधरजी का आदेश लेने के लिए रात में मन्दिर के अन्दर चली गईं। सवेरे जब मन्दिर खोला गया तो मूर्ति के हाथ पर मीरा के वस्त्र थे। और मालूम होता था
कि गोपी का अवतार मीरा खुद मूर्ति में समा गई। चैतन्य महाप्रभु के लिए भी यही मशहूर है। ब्राह्मण निराश होकर वापस आए और मीरा एक अज्ञात बैरागन के भेस में दक्षिण भारत की तीर्थयात्रा पर निकल गईं। चार साल उनका कोई पता न चला।
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